मांडव्यपुर नरेश राव जोधा अपनी तत्कालीन राजधानी से इतने सहमे में हुए थे कि वह अपनी नई राजधानी के लिए तैयार किए जाने वाले दुर्ग के संबंध में किसी भी पंडित ज्योतिषी एवं तांत्रिक की दी हुई राय को तुरंत मान लेते थे।
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यही कारण रहा कि जब राव जोधा को तांत्रिकों ने नए दुर्ग की नींव में सबसे पहले पत्थर की जगह किसी जीवित नर को चुनवाया जाने को कहा।
मंडोर किले के बार-बार दुश्मनों के कब्जे में जाने से राव जोधा ने राजधानी में इस आशय की मुनादी पिटवा दी कि जो कोई भी स्वामी भक्त अपने आप को राज्य के भले के लिए नए बनने वाले दुर्ग में अपने आप को नींव में चुनवाने के लिए प्रस्तुत करेगा उसे नगद पुरस्कार के अलावा उसे मकान के लिए राजधानी में जमीन दी जाएगी।
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इस प्रकार मंडोर से 5 कोस दक्षिण में स्थित चिड़िया नाथ की टूंक पर 12 मई 1459 को सुबह 9:00 से 12:00 बजे के मध्य उपस्थित होकर बलाई जाति के राजाराम (राजिया) को जिंदा दफनाया गया।
पूर्व घोषणा के अनुसार उनके परिवारजनों को जमीन का पट्टा व ₹10000 की नकद राशि राशि उसके परिवार को जीते जी सौंपी गई।
दुर्ग की नींव में किसी को जिंदा दफन करने की गाथा यहीं समाप्त नहीं होती।
सिंध के पुष्करणा ब्राह्मण उपाध्याय गणपति दत्त के वंश की ख्यात के अनुसार राजिया के अलावा चार और व्यक्तियों को दीवार के चारों कोने में जीवित चुन दिया गया।
कहा जाता है कि बाद में बाद में चामुंडा माता को प्रसन्न करने के लिए उपाध्याय गणपत ने भी अपने पुत्र मेंहराम जिसे मोरा भी कहा जाता था को बलि के लिए प्रस्तुत किया।
इसी ख्यात के अनुसार तब राव जोधा ने कहा था कि "थ्हारै नाम सूं इण किले रो नाम दिरांसां।
इसीलिए लिए मोरा का मोरध्वज ( मयुरध्वज) व मेहराम का मेहरानगढ़ नाम दिया गया।
जिस स्थान पर पर राजिया मेघवाल को जीवित गाडा गया उसके ऊपर दुर्ग का का नक्कारखाना व खजाने की ईमारतें बनी है।
तथा इसके सामने राव जोधा का फलसा बना हुआ है।
कहा जाता है कि जब राव जोधा के काल में दुर्ग की यह अधिकतम सीमा थी तथा यही प्रवेश द्वार।
ख्यातों के अनुसार स्थापना का मुहूर्त निश्चित हो जाने के बावजूद भी जब शीलालेख कि खुदाई नहीं हुई तब वहां पास में ही स्थित एक ऊंट चलाने वाले के बाड़े से द्वार की शिला लाकर स्थापित की गई।
उस शिला में बाड़े के द्वार को बंद करने के लिए छेद बने हैं।
उस समय जो लोग घोड़े पर बैठकर किले में जाते थे उनमें से जनसाधारण इमरती पुल के पास, इकहरी ताजीम वाले राव जोधा के फलसे के पास, दुहरी ताजीम वाले व सरोपाव वाले एकल बुर्ज के पास और महाराजा लोग लोहापोल के आगे कि किलेदार की चौकी के पास घोड़े से उतर जाते थे।
जोधपुर की ख्यातों के अनुसार राव जोधा ने दुर्ग की कुंडली तैयार करवाई जिसके अनुसार इसका नामकरण चिंतामणी दुर्ग रखा जाना था।
निर्माण की स्थिति से यह दुर्ग एक पंख फैलाए हुए मोर की आकृति के समान दिखाई देता था इसलिए इसका पहला नाम मयूरध्वज दुर्ग के नाम से हुआ। वर्तमान नामकरण मेहरानगढ़ के पीछे मारवाड़ के राठौड़ो के सूर्यवंशी होने का संस्कृत भाषा में सूर्य को मिहिर पुकारने का अर्थ भी मेहरान से लगाया जाता हैं।
फारसी में भी मेहर का अर्थ सूर्य से होता है। साथ ही ब्राह्मणों की ख्यात में वर्णित दुर्ग के शिलान्यास के अवसर पर उपाध्याय गणपति दत्त के पुत्र मेहराम के बत्तीसी के रूप में बलि दिए जाने के कारण भी इस दुर्ग का नामकरण मेहरानगढ़ होना माना जाता हैं।
मेहरान नाम का अर्थ व्रहत विशाल व भव्यता भी है। कई लेखकों ने अपने लेख में इसे विशाल व भव्य लिखा है। डिंगल भाषा में भी महराण का अर्थ समुद्र जैसा विशाल होना है।
इस संबंध में कोई निश्चित धारणा अथवा लेख नहीं है हालांकि इस बारे में एक दोहा प्रचलित है जिसमें लिखा है :
पनरा सो पनरौत्तरे जेठ मास में जाण सुद ग्यारस शनिवार ने मंडियो गढ़ मेहरान।
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यही कारण रहा कि जब राव जोधा को तांत्रिकों ने नए दुर्ग की नींव में सबसे पहले पत्थर की जगह किसी जीवित नर को चुनवाया जाने को कहा।
मंडोर किले के बार-बार दुश्मनों के कब्जे में जाने से राव जोधा ने राजधानी में इस आशय की मुनादी पिटवा दी कि जो कोई भी स्वामी भक्त अपने आप को राज्य के भले के लिए नए बनने वाले दुर्ग में अपने आप को नींव में चुनवाने के लिए प्रस्तुत करेगा उसे नगद पुरस्कार के अलावा उसे मकान के लिए राजधानी में जमीन दी जाएगी।
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इस प्रकार मंडोर से 5 कोस दक्षिण में स्थित चिड़िया नाथ की टूंक पर 12 मई 1459 को सुबह 9:00 से 12:00 बजे के मध्य उपस्थित होकर बलाई जाति के राजाराम (राजिया) को जिंदा दफनाया गया।
पूर्व घोषणा के अनुसार उनके परिवारजनों को जमीन का पट्टा व ₹10000 की नकद राशि राशि उसके परिवार को जीते जी सौंपी गई।
दुर्ग की नींव में किसी को जिंदा दफन करने की गाथा यहीं समाप्त नहीं होती।
सिंध के पुष्करणा ब्राह्मण उपाध्याय गणपति दत्त के वंश की ख्यात के अनुसार राजिया के अलावा चार और व्यक्तियों को दीवार के चारों कोने में जीवित चुन दिया गया।
कहा जाता है कि बाद में बाद में चामुंडा माता को प्रसन्न करने के लिए उपाध्याय गणपत ने भी अपने पुत्र मेंहराम जिसे मोरा भी कहा जाता था को बलि के लिए प्रस्तुत किया।
इसी ख्यात के अनुसार तब राव जोधा ने कहा था कि "थ्हारै नाम सूं इण किले रो नाम दिरांसां।
इसीलिए लिए मोरा का मोरध्वज ( मयुरध्वज) व मेहराम का मेहरानगढ़ नाम दिया गया।
जिस स्थान पर पर राजिया मेघवाल को जीवित गाडा गया उसके ऊपर दुर्ग का का नक्कारखाना व खजाने की ईमारतें बनी है।
तथा इसके सामने राव जोधा का फलसा बना हुआ है।
कहा जाता है कि जब राव जोधा के काल में दुर्ग की यह अधिकतम सीमा थी तथा यही प्रवेश द्वार।
ख्यातों के अनुसार स्थापना का मुहूर्त निश्चित हो जाने के बावजूद भी जब शीलालेख कि खुदाई नहीं हुई तब वहां पास में ही स्थित एक ऊंट चलाने वाले के बाड़े से द्वार की शिला लाकर स्थापित की गई।
उस शिला में बाड़े के द्वार को बंद करने के लिए छेद बने हैं।
उस समय जो लोग घोड़े पर बैठकर किले में जाते थे उनमें से जनसाधारण इमरती पुल के पास, इकहरी ताजीम वाले राव जोधा के फलसे के पास, दुहरी ताजीम वाले व सरोपाव वाले एकल बुर्ज के पास और महाराजा लोग लोहापोल के आगे कि किलेदार की चौकी के पास घोड़े से उतर जाते थे।
जोधपुर की ख्यातों के अनुसार राव जोधा ने दुर्ग की कुंडली तैयार करवाई जिसके अनुसार इसका नामकरण चिंतामणी दुर्ग रखा जाना था।
निर्माण की स्थिति से यह दुर्ग एक पंख फैलाए हुए मोर की आकृति के समान दिखाई देता था इसलिए इसका पहला नाम मयूरध्वज दुर्ग के नाम से हुआ। वर्तमान नामकरण मेहरानगढ़ के पीछे मारवाड़ के राठौड़ो के सूर्यवंशी होने का संस्कृत भाषा में सूर्य को मिहिर पुकारने का अर्थ भी मेहरान से लगाया जाता हैं।
फारसी में भी मेहर का अर्थ सूर्य से होता है। साथ ही ब्राह्मणों की ख्यात में वर्णित दुर्ग के शिलान्यास के अवसर पर उपाध्याय गणपति दत्त के पुत्र मेहराम के बत्तीसी के रूप में बलि दिए जाने के कारण भी इस दुर्ग का नामकरण मेहरानगढ़ होना माना जाता हैं।
मेहरान नाम का अर्थ व्रहत विशाल व भव्यता भी है। कई लेखकों ने अपने लेख में इसे विशाल व भव्य लिखा है। डिंगल भाषा में भी महराण का अर्थ समुद्र जैसा विशाल होना है।
इस संबंध में कोई निश्चित धारणा अथवा लेख नहीं है हालांकि इस बारे में एक दोहा प्रचलित है जिसमें लिखा है :
पनरा सो पनरौत्तरे जेठ मास में जाण सुद ग्यारस शनिवार ने मंडियो गढ़ मेहरान।